Kanakadhara stotra: धर्म ग्रंथों के अनुसार दीपावली की रात में जब निशीथ काल हो तो कनकधारा स्तोत्र का पाठ करना चाहिए. ऐसे करने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होकर धन वर्षा करती हैं. ऐसा माना जाता है कि कनकधारा स्तोत्र के पाठ को करने से दरिद्रता का नाश और मां लक्ष्मी की विशेष कृपा प्राप्त होती है. पूर्व जन्म अथवा किसी अन्य कर्म से आई हुई दरिद्रता का नाश भी इस स्तोत्र के पाठ से हो जाता है.
कनकधारा स्तोत्र एक संस्कृत स्तोत्र है जिसे आदि शंकराचार्य ने रचा था। यह स्तोत्र देवी लक्ष्मी की स्तुति में लिखा गया है और इसे उनके आशीर्वाद और कृपा की प्राप्ति के लिए पढ़ा जाता है। “कनकधारा” का अर्थ है “स्वर्ण की धारा” और ऐसा माना जाता है कि इस स्तोत्र के जाप से देवी लक्ष्मी की कृपा से धन, समृद्धि और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
कनकधारा स्तोत्र की रचना की संपूर्ण कथा
कनकधारा स्तोत्र की रचना भगवान शिव के अंशावतार आदिगुरु शंकराचार्य ने की थी. बाल्यावस्था में वह एक दिन भिक्षाटन के लिए एक ब्राह्मण के घर पर गए. ब्राह्मण देवता तो थे नहीं, घर में इतनी गरीबी थी कि ब्राह्मणी के पास देने के लिए कुछ नहीं था. उसने भी कई दिनों से भोजन ग्रहण नहीं किया था अपनी दयनीय स्थिति और बटुक को कुछ नहीं दे पाने के कारण उसके नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली, बहुत मुश्किल से घर में एक आंवला मिला तो ब्रह्माणी वही लेकर बाहर निकली, उसकी दयनीय स्थिति को देखकर बालक शंकर को बहुत दया आयी. उसने तत्काल वहीं कनकधारा स्तोत्र की रचना करके मां लक्ष्मी का आवाहन किया. बालक शंकर की स्तुति से मां लक्ष्मी प्रकट हुईं. माता लक्ष्मी के प्रकट होते ही बालक शंकर ने उस गरीब ब्राह्मण परिवार को धनी करने का आग्रह मां लक्ष्मी से किया. इस पर लक्ष्मी ने उनके पूर्व जन्मों का हवाला देते हुए कहा कि यह संभव नहीं है, परंतु बालक शंकर के कनकधारा स्तोत्र से वह इतनी प्रसन्न थी कि वह उनके अनुरोध को टाल नहीं पाई और उस ब्राह्मण परिवार के घर कनक अर्थात स्वर्ण की वर्षा कर दी.
दिवाली के दिन क्यों करना चाहिए?
इसी कारण इस स्तोत्र को कनकधारा स्तोत्र कहा जाता है दीपावली के दिन इस स्तोत्र की 11, 21, 51 या 108 आवृत्ति करनी चाहिए उसके पश्चात नित्य एक, पांच या ग्यारह आवृत्ति करनी चाहिए. इस स्तोत्र से पूर्व मां लक्ष्मी का मन ही मन आवाहन करना चाहिए और आदि गुरु शंकराचार्य का भी ध्यान अवश्य करना चाहिए.
कनकधारा स्तोत्र – Kanakdhara Strotra
॥ कनकधारा स्तोत्रम् ॥
अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती
भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।
अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला
माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गळदेवतायाः॥१॥
मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः
प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या
सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः॥२॥
विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षम्
आनन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्धं
इन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः॥३॥
आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दं
आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम्।
आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं
भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः॥४॥
बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या
हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला
कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः॥५॥
कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेः
धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव।
मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्तिः
भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः॥६॥
प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत्प्रभावान्
माङ्गल्यभाजि मदुमाथिनि मन्मथेन।
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं
मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः॥७॥
दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारां
अस्मिन्नकिञ्चनविहङ्गशिशौ विषण्णे।
दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं
नारायणप्रणयिनी नयनाम्बुवाहः॥८॥
इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र-
दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते।
दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां
पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः॥९॥
गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति
शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति।
सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै
तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै॥१०॥
श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै
रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै
पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै॥११॥
नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै
नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूम्यै।
नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै
नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै॥१२॥
सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि
साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि।
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोदयानि
मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये॥१३॥
यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः
सेवकस्य सकलार्थसम्पदः।
सन्तनोति वचनाङ्गमानसैः
त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे॥१४॥
सरसिजनिलये सरोजहस्ते
धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्॥१५॥
दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्ट-
स्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुताङ्गीम्।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष-
लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम्॥१६॥
कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं
करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्गैः।
अवलोकय मामकिञ्चनानां
प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः॥१७॥
स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं
त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो
भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः॥१८॥
द्वन्द्वाशुभं यदपि न मन्थरमङ्ग जोषं
दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते।
दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां
पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः॥१९॥
गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति
शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति।
सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै
तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै॥२०॥
श्रीविष्टरेन्द्रजलदश्रुतिगौरदेहे
नित्यं च कृष्णसरणिं तव स्वधिष्ठाम्।
मातुस्तु पादपयसोऽपि च पातुमिच्छेः
श्रेयस्करी तव कवित्वविलासविद्धा॥२१॥
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